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लोकतंत्र की शोभा- राजनीति या लोकनीति(लेख)


*अखिलेश सिंह श्रीवास्तव*


ग्वालियर-से मेरे अग्रज साहित्यिक मित्र डॉ अनिल महेंदले ने चलभाष-वार्ता के दौरान एक ऐसा विषय उठाया जिससे मेरे मन में चिंतन के नए स्वर गूँज  उठे| श्री महेंदले ने कहा-“ भारत एक लोकतांत्रिक देश है ऐसे में इसकी संचालन व्यवस्था राजनीति होना चाहिए अथवा लोकनीति?” विषय बहुत बड़ा और महत्व पूर्ण है| इस पर जन चिंतन अनिवार्य है अतः इस आलेख के माध्यम से मैं इसे सार्वजिनक करता हूँ| राष्ट्र प्रथम है, इसके बाद अन्य कुछ और, जो इस भावना-से असहमत है, मैं उसके देशप्रेम से असहमत हूँ|


विश्व के मानचित्र में भारत लोकतंत्र का ऐसा अद्भुत मंदिर है जहाँ भाषा-बोली अंतर, भात्र-भावना, संस्कृतिक-सामजिक अनेकाताएँ, मानवीय संवेदनाएँ विभिन्न मार्गों-से होती हूई एकता के चतुर्भुज संगम में समाहित हो जाती हैं और निर्माण करती हैं एक विशाल जनतंत्र का| ऐसे में यहाँ राजनीति का क्या स्थान? क्या भारतीय सरकार का आधर राजनीति होना चाहिए अथवा लोकनीति? शब्दों में बहुत शक्ती होती है अतः इनका प्रयोग सोच-समझकर करना चाहिए| कहा जाता है न, 'शस्त्र-से निर्मित घाव भर जाते हैं, परंतु शब्द-निर्मित घाव नहीं भरते|' बड़े संघर्षों से हमने स्वतंत्रता प्राप्त की है, लेकिन न जाने क्यों स्वातंत्रोत्तर निति-नियम निर्माण में भारतीय भावना का वो रूप नहीं दिखा जो आवश्यक था इसीलिए भीषण परिणाम भी हमने देखे| यहाँ पुरानी त्रुटियों की वीक्षणा नहीं की जा रही, बल्कि विचार अभिव्यक्ति के संवैधानिक अधिकार के अंतर्गत शाब्दिक-अभिव्यक्ति सुधार का परामर्श दिया जा रहा है| सत्य ही तो है जिस देश की प्रणाली का मूल स्रोत लोकतंत्र हो वहाँ राजतंत्र की शब्दावली का क्या काम| राजतंत्रात्मक व्यवस्था तो स्वतंत्रता प्राप्ती के साथ भारत में समाप्त कर दी गयी, ऐसे में उन शब्दों का प्रयोग क्यों किया जाए जो राजतंत्र की याद दिलाए| सोमवार, पाँच अगस्त दो हज़ार उन्नीस को कश्मीर-से धारा तीन सौ सत्तर और पैंतीस-ए का समापन लोकतंत्र की स्थापना में रास्ट्रीय भावना-से ओतप्रोत बड़ा निर्णय है| भारत में आधिकारिक रूप-से राज्यों को प्रदेश एवँ केंद्र शासित प्रदेश में विभक्त किया गया है| विदित है, अब्राहिम लिंकन द्वारा प्रदत्त लोकतंत्र की परिभाषा भारत में पूर्णतः लागू है; यथा- “जनता की, जनता के लिए, जनता द्वारा|” ऐसे में हर उस स्थान पर परिवर्तन की अवश्यक्ता जहाँ राजतन्त्र के प्रतिनिधि शब्दों का प्रयोग किया जा रहा है|  


शब्दों का बड़ा महत्त्व है| जिस भाव से शब्द वाणी-से निकलते हैं जन-मानस में वैसा ही असर छोड़ते हैं| विशेषतः राष्ट्रीय और पंथीय विषयों पर| इनके प्रयोंगों पर विशेष ध्यान रखना अनिवार्य है; तभी तो कहा गया है, 'वाणी-से सम्मान मिले, वाणी-से अपमान|' कबीरदास कहते हैं, “ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोए, औरों को शीतल करे आपहु शीतल होए|”  स्वामी स्वरूपानंद महराज के समाचार पत्रों में प्रकाशित व्यक्तव्य को स्मरण करना आवश्यक समझाता हूँ जिसका अभिप्राय था, माँ भारती प्रत्येक भारतीय की माता हैं, फ़िर वो बड़े से बड़ा व्यक्ति हो या छोटे से छोटा| ऐसे में न जाने क्यों तत्कालीन लोगों ने राष्ट्र पुत्र मोहनदास करमचंद गाँधी को राष्ट्रपिता का संबोधन दिया| निश्चित ही यह बापू के लिए देशवासियों का भावात्मक संबोधन है, लेकिन महराज जी की बात की सत्यता से इनकार नहीं किया जा सकता| आशय साफ़ है, कई बार भावना पर व्यावहारिकता का नियंत्रण ज़रूरी होता है| एक और वैचारिक उत्कृष्टता का उदाहरण देखें, प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं को 'प्रधान-सेवक' कह के जनता के प्रति अपने विचारों को एक नई दिशा दी, जिसे पूरे देश में सम्मान मिला और बहुत संभव है कि, इससे लोक-भावनाओं में नई ऊर्जा संचारित हूई हो!


 भारत धर्मप्राण, आध्यात्मिक भावों का देश है| इस सनातन भूमि में भौतिकवाद-से अधिक महत्त्व अध्यात्म को प्राप्त है| वह अध्यात्म जो अधिगत आत्मा है, इसीलिए सरकार की नीति भी लोकात्म अनुरूप होना चाहिए फिर ऐसी शब्दावली क्यों जो भ्रमोत्सर्जक हो| राजनीति का सीधा अभिप्राय 'राज्य की नीति' से है| प्रश्न उठता है, किस राज्य की नीति? कहाँ है वो राज्य? किस राजा द्वारा निर्देशित नीति? इत्यादी-इत्यादी| भारत में क्या कोई राजा या राज्य सत्ता है? उत्तर सिर्फ़ एक है 'नहीं'| पुनः याचित प्रश्न- तो यह छद्म शब्दवली क्यों? क्यों लोकतंत्र की मूल शक्ति, जनशक्ति के कल्याणार्थ निर्मित नीति को राजनीति कहा गया? क्या है ये राजनीति? जबकी यह कार्यप्रणाली लोकनीति, जननीति कहलाई जाना अधिकाधिक उचित है| मित्रों! एक और महत्वपूर्ण बिंदु है, हम अपने राष्ट्रीय प्रमुख को 'राष्ट्रपति' कहते हैं| पर 'पति' शब्द अधिपति अथवा स्वामी का द्योतक है| फ़िर देश के प्रमुख के लिए इसका उपयोग कितना उचित है...! यादि राष्ट्रपति के स्थान पर 'राष्ट्राध्यक्ष' या 'राष्ट्रप्रधान' कहें तो इसका भावबोध-सौन्दर्य और बढ़ जाएगा! प्राचीन भारत में वैशाली जैसे स्थानों में लोकतंत्र की स्थापन थी, हमें वहाँ की शब्दावली का प्रयोग चलन में लाना होगा| अंग्रेज़ी शब्दावली से प्रभावित शब्दकोष का स्तेमाल त्रुटिपूर्ण एवं भ्रामक है|


राजतंत्रात्मक राजनीति छल-छिद्रं, सत्ता के लिए उठा-पटक से भरी, अवसरवादी सोच को चित्रित करती है, जो भारतीय लोकतंत्रात्मक भावना-से मेल नहीं खाती| इसका आशय यह नहीं कि राजनीति का हर दृष्टिकोंण ख़राब है| अनेक ऐसे उद्धरण हैं जहाँ राजतंत्र ने जन कल्याण के अप्रितम कार्य किये, पर कटु सत्य यह भी है कि वर्त्तमान की राजनीति ने सैधांतिक राजनीति की क़मर तोड़ दी| अजमेर के श्री बद्री प्रसाद साक्षात्कार में प्रकाशित अपने लेख में राजनीति को कीचड़ की नाली कहते हैं| महात्मा गाँधी के विचारों को आधार बना कर चलने वाली भारतीय सरकार को यह समझना होगा कि नगर, मार्ग, क्रीड़ा-प्रांगण, स्टेडियम, भवन इत्यादी के नाम परिवर्तन के साथ-साथ देश की प्रणाली गत शब्दावली में भी समुचित संशोधन अनिवार्य है| हर देश में अलग-अलग व्यवस्थाएँ हैं जो वहाँ की संस्कृति के आधार पर निर्मित हैं; जैसे- इंग्लैण्ड में राजनीति और लोकनीति को बहुत समीप रखा गया है, इसीलिए औपचारिक प्रमुख रजा होते हुए भी वास्तविक शक्ति पार्लियामेंट में निहित है| जर्मन, फ़्रांस जैसे देशों में एकल प्रमुखता विशेष रही, जिसके माध्यम से देश हित और लोक हित के कार्यों को प्रमुखता से संपादित किया गया| पकिस्तान में लोकतान्त्रिक प्रणाली होते हुए भी फ़ौजी हस्तक्षेप विशेष महत्त्व रखता है जबकि भारत जैसे संस्कृति संरक्षक देश की सांस्कृतिक, सामजिक स्थिति अन्य देशों की तुलना में भिन्न है, इसीलिए यहाँ लोकतंत्रात्मक प्रणाली को अंगीकार किया गया है, अतः यहाँ राजतन्त्र अथवा एकल नेतृत्व व्यवस्थाएँ असंगत हैं|      


शताब्दी परवर्तन के साथ सांस्कृतिक, आर्थिक, नीतिगत, विकासमूलक परिवर्तन होते हैं ऐसे में भाषा-वर्तनी संबंधी शाब्दिक गहराइयाँ भी विशेष स्थान रखती हैं| हम भारतियों ने अपने संविधान को आत्मार्पित किया है, हमारी भाषा हिंदी है, ऐसे में विदेशी भाषाओं से प्रभावित, अनुवादित नीतिगत असम्बद्ध शब्दों से, पराधीनता की बदबू आती है| भले हम विभिन्न भाषा-धर्म को मानने वाले हैं पर राष्ट्रीय मुद्दों के प्रति हमारी सोच ध्रुविकृत है, इसीलिए आज विश्व में भारतीय छवि विश्व-नेता के रूप में सामने आ रही है| प्रति पाँच वर्ष में आम चुनाव के माद्यम से नागरिकों द्वारा सरकार  चुनी जाती है| लोकतंत्र के इस महायज्ञ की प्रतिभागी पार्टीज़ 'राजनैतिक दल' के रूप में स्वयं को प्रस्तुत करते हैं, क्यों...ये राजनैतिक कैसे हो गए? क्या भारत के नागरिक राजा का चुनाव करते हैं? राजनैतिक-दल के स्थान पर इन्हें जनसेवी-दल या लोक-दल जैसे संबोधनों से संबोधित करना चाहिए| राष्ट्रिय चिंतन के प्रति यह हमारा सामूहिक उत्तरदायित्व है कि हम भूपति, अधिपति, अधिनायकवाद, साम्राज्यवाद, सत्तारूढ़ जैसे शब्दों से बचें| राष्ट्र संचालन की एक राष्ट्रिय नीति होना चाहिए| जो भी दल सेवारूढ़ हो निर्णित रष्ट्रीय नीति पर कार्य करना उसकी बाध्यता होनी चाहिए यदि परिवर्तन आवश्यक हो तो सामूहिक विमर्श-से समाधान निकला जाए


भारत बहुपंथों, बहुमतों, बहुसंस्कृति, बहुभाषीय जनों को स्वीकार  करने वाला लोकतंत्र है ऐसे में यहाँ की नीति, राजनीति कैसे कहला सकती है? यहाँ सिर्फ़ और सिर्फ़ लोकनीति ही ग्राह्य होनी चाहिए| हम वर्तमान हैं, आज हमारे ऊपर यह दायित्व है कि हम राष्ट्रीय मुद्दों पर संबोधनों की शाब्दिक मर्यादा को चिहिन्नित करें अन्यथा भावी पीढ़ी भी वैसे ही हमारी भूलों पर दुःख करेगी जैसे आज हम अपने पूर्ववर्ती रास्ट्रीय कर्णधारों की ग़लतियों पर करते हैं| पाश्च्यात्य अन्धानुकरण ऐसा हो जाएगा जिसमें भारतीय शब्दावली खो जाएगी और निश्चित ही हम इसके लिए ज़िम्मेदार होंगे| संशोधन दायित्व वर्त्तमान का है कि भविष्य भारतीयता के समीप रहे| यह आज तय करना होगा कि लोकतंत्र के मंदिर में राजनीति विराजे या लोकनीति!   


*अखिलेश सिंह श्रीवास्तव,दादू मोहल्ला, दादू साहब का बाड़ा,,संजय वार्ड, सिवनी-480661 (म.प्र.)मो- 7049595861, ईमेल-akhileshvwo@gmail.con


 









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