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क्यों जरुरी है आदमी की तलाश (लेख)


*ललित गर्ग*
आज हमें ऐसे आदमी की तलाश है जो जीवन के मूल्य मानकों के प्रति बने सोच एवं नजरिए को सही दृष्टि एवं सही दिशा दे। उन सिद्धांतों को नया अर्थ दे जिन पर आज तक लोगों ने अंगुली उठाई है लेकिन जीने का साहस नहीं किया। उन आदर्शों को जीए जो अभी तक संस्कृति को सूरत तो दे सके मगर सीरत नहीं। वह उन जटिल एवं समस्याग्रस्त रास्तों को बदले जिन पर चलकर हर कदम ने अंत तक सिर्फ ठोकरें ही खाई हैं। विज्ञान, संस्कृति, परम्परा, धर्म और जीवन-मूल्यों के नाम पर उठा जिंदगी का यही पहला कदम एक सफल एवं सार्थक जीवन का नायाब तोहफा होगा। लेकिन इसके लिये इंसान को इंसान बनना होगा।
ईश्वर का पहला चिन्तन था-फरिश्ता और ईश्वर का ही पहला शब्द भी था मनुष्य। ईश्वर के प्रारंभिक दोनों ही चिन्तन आज लुप्तप्राय है। तभी तो यह भी सुना है-आदमी की जात बड़ी बदजात होती है। खरबूजों को देखकर जैसे खरबूजा रंग बदलता है वैसे ही आदमी-आदमी को देखकर रंग बदलता है। गलत को गलत मानते हुए भी इंसान गलत किये जा रहा है, इसी कारण समस्याओं एवं अंधेरों के अम्बार लगे हैं। लेकिन ऐसा ही नहीं है, कुछ अच्छे लोग भी है, शायद उनकी अच्छाइयों के कारण ही जीवन बचा हुआ है।  ऐसे लोगों ने नैतिकता एवं चरित्र का खिताब ओढ़ा नहीं, उसे जीकर दिखाया। जो भाग्य और नियति के हाथों के खिलौना बनकर नहीं बैठे, स्वयं के पसीने से अपना भाग्य लिखा। मिल्टन ने कहा भी है कि जिस प्रकार सूर्य की किरणें किसी पदार्थ से अपवित्र नहीं की जा सकतीं, उसी प्रकार सत्य को भी बाह्य स्पर्श से अपवित्र करना असंभव है।'
आदमी की तलाश क्यों जरूरी है? यह प्रश्न क्यों, इस सन्दर्भ में महान् दार्शनिक डाॅ.राधाकृष्णन की इन पंक्तियांे का स्मरण हो आया कि-'हमने पक्षियों की तरह उड़ना और मछलियों की तरह तैरना तो सीख लिया है किन्तु मनुष्य की तरह पृथ्वी पर चलना एवं जीना नहीं सीखा है।' लेकिन इस भीड़ में कुछ-एक होते हैं जो रंग नहीं बदलते उन्हें खोजना मुश्किल भी है तो बहुत आसान भी, जो आदमी होते हैं। पता नहीं कब हम उनसे रू-ब-रू हो जाएं। सिर्फ समझ का दरवाजा खोलने की जरूरत है। अगर समझपूर्वक जीना आ गया तो जीवन के प्रत्येक धरातल पर इंसान की इंसान से मुलाकात होने लगेगी।
जीवन की विडम्बना एवं विसंगति ही कही जायेगी कि लोग उम्र-भर मुखौटों में जीते हैं। कोई यश के नाम पर, कोई सत्ता के नाम पर, कोई पद-प्रतिष्ठा के नाम पर, कोई स्वार्थी संबंधों के नाम पर। इसलिए हर बार सच को देखने, पकड़ने में आंखें धोखा खा जाती हैं। श्रद्धा, आस्था, विश्वास, समर्पण, सेवा, सहयोग, संकल्प जैसे जीवन-मूल्य अपाहिज होकर रह जाते हैं। काल का हर मुहरा छलता है। जीवन के इन्द्रधनुषी रंग बिखर जाते हैं और सच को जीने की हर कोशिश नाकामयाब रह जाती है। सिसरो ने कहा भी है कि यदि तुम भलाई का अनुकरण परिश्रम के साथ करो तो परिश्रम समाप्त हो जाता है और भलाई बनी रहती है। यदि तुम बुराई का अनुसरण सुख के साथ करो तो सुख चला जाता है और बुराई बनी रहती है।' इस तरह हम भ्रम में जीते हैं और भ्रम इंसान को ठगने की धरातल देता रहता है।
फूल से भंवरा ठगा गया और फल से बैल ठगा गया। आज की दुनिया में भी कौन किससे नहीं ठगा जा रहा है? पदार्थ से प्राणी और प्राणी से पदार्थ, मगर प्राणी पर प्रतिक्रिया होती है, इसलिए यह प्रतिक्रिया कभी प्रवंचना बनती है, तो कभी प्रेरणा। उम्र का एक चेहरा माया, छल-कपट भी है। क्षेत्र चाहे राजनीति का हो या आम जीवन का, सचाई है कहां? सब जगह दांवपंच की नीति चलती है। कथनी और करनी के बीच की दूरियां धर्म, कानून, व्यवस्था, सुरक्षा, संरक्षण और विकास की योजनाओं पर प्रश्नचिन्ह लगा देती है। इन सबके बीच बेचारा भोला, साफ-सुथरा, सीधा आदमी ठगा जाता है।
कहा जाता है-आदमी नहीं चलता, उसका विश्वास चलता है। आत्मविश्वास सभी गुणों को एक जगह बांध देता है यानी कि विश्वास की रोशनी में मनुष्य का संपूर्ण व्यक्तित्व और आदर्श उजागर होता है। गेटे की प्रसिद्ध उक्ति है कि जब कोई आदमी ठीक काम करता है तो उसे पता तक नहीं चलता कि वह क्या कर रहा है पर गलत काम करते समय उसे हर क्षण यह ख्याल रहता है कि वह जो कर रहा है, वह गलत है।
कहीं कोई गलत न भी हो पर गलतफहमी यदि हो तो फिर मन के फासले पाटने बहुत कठिन होते हैं। बीच में खाइयां खोद देती हैं-हमारी अधूरी सोच, संस्कारों की पकड़, झूठी महत्वाकांक्षाएं, अनुभवों की कमजोर जमीं, विश्वास का छोटा दायरा, तथ्यों की विश्लेषण का अभाव। और तब सत्य की तलाश अधूरी रह जाती है, आदमी आदमी से अलग हो जाता है। जब भ्रम टूटता है झूठ को सच मानने का, असत् को सत् जान लेने का तब आदमी का नया जन्म होता है और आदमी सत्य की तलाश में नया सफर शुरू करता है। आदमीयत के खोए मायने बटोरता है। फिर जिंदगी को एक सार्थक पहचान देता है। तुलसीदास, कबीर, दादू, रैदास, गांधी, आचार्य तुलसी आदि ने जीवन को इसी तरह सार्थक पहचान दी। आदर्श एवं मूल्याधारित संतुलित जीवन एवं विचारों की साधना ने उन्हें ज्ञानी बनाया और उन लोगों ने जीवन भर उस ज्ञान को लोगों में बांटा।
विचारों का असंतुलित प्रवाह टब के समान है, जो इस पर अनुशासन करना सीख लेता है, उसके लिये यह वरदान है और जो इसके वशीभूत होकर अपनी विवेक चेतना खो देता है, वह विनाश की ओर अग्रसर हो जाता है। डब्ल्यू. सोमरसेट मोघम ने कहा कि जीवन के बारे में एक मजेदार बात यह है कि यदि आप सर्वश्रेष्ठ वस्तु से कुछ भी कम स्वीकार करने से इंकार करते हैं तो अकसर आप उसको प्राप्त कर ही लेते हैं। महात्मा गांधी ने इसीलिये कहा कि हमें वह परिवर्तन खुद में करना चाहिए जिसे हम संसार में देखना चाहते हैं। जरूरत है हम दर्पण जैसा जीवन जीना सीखें। उन सभी वातायनों एवं खिड़कियों को बन्द कर दें जिनसे आने वाली गन्दी हवा इंसान को इंसान नहीं रहने देती। उन  अर्थहीन चाहों को लक्ष्मणरेखा दें जिनके अतिक्रमण ने इंसान की सूरत को ही नहीं, सीरत को भी बिगाड़ा है। इसीलिये इंसान के व्यवहार में इंसान को देखा जा सके है यही आदमी की तलाश है। 



*ललित गर्ग,ई-253, सरस्वती कंुज अपार्टमेंट,25 आई. पी. एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-92,फोनः 22727486, 9811051133









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