Subscribe Us

header ads

अरे ! बादलो !!


*शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'*

अरे ! बादलो !!

छेड़े रहना,

जागृति का संगीत।

 

दर्दों की चुप चुभन रातदिन,

खेली दुबिया-चोंच,

संचित शब्दों की धरती पर,

देखी गई खरोंच,

अर्थ व्यंजना,

संवादों की,

कभी न हो भयभीत।

 

गहन कुहासा फैल रहा है,

इंद्रधनुष सुनसान,

आधा मूर्छित पड़ा हुआ है,

खड़ा साँस का धान,

सजग आँकड़े,

चाट गये हैं,

नव युग के नवनीत।

 

चलन कलन की खुली हथेली,

पढ़ता रहा अतीत,

वह दिन ही अच्छा होता है,

जो जाता है बीत,

समाधान हर,

हल देता है,

आशा के विपरीत।

 

*शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'*

           *मेरठ*

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ