*अशोक सिंह
कितना बेईमानी लगता है
जब हमारी खुद की नैतिकताएँ ही
पीली पड़ती जा रही हैं
बदलती जा रही हैं विवशताओं में
तब अनैतिक लोगों के बीच बैठ
नैतिकता पर बातें करना
कितना बईमानी लगती है!
कितना बईमानी लगता है
अपनी खद की बनायी आचार संहिता के अनुकूल
ढूंढना कोई अच्छा आदमी
और गढ़ना एक आदर्ष नागरिक की परिभाषा
कितना बईमानी लगता है
खाये-पीये अघाये लोगों के साथ बैठ
भूख पर बतियाते
देश की गरीबी पर चर्चा करना
और वेसलरी की बोतल से पानी पी-पीकर
पानी के बाजारीकरण पर बहस करना
कितना बईमानी लगता है
भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे
अपने जनप्रतिनिधियों के साथ बैठ
ईमानदारी की बातें करते
उनके साथ अपनी तस्वीरें खींचवाना
और देश-दुनिया पर चर्चा करते
अपने समय व व्यवस्था को कोसना-गरियाना
बईमानी लगता है कितना
किसी असहज माहौल में सहजता से मुस्कुराना
वह भी एक ऐसे समय में जब
हमारी मुस्कुराहट हमारे कमरे की दीवारों पर टंगी
सिर्फ हमारी तस्वीरें में कैद होकर रह गयी हो।
*अशोक सिंह, दुमका झारखंड
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