सिवनी। “पनघट की कविता मरी, मरे नदी के छंद, लूट लिया किसने मधुर झरनों का आनंद | जब तक है माँ-बाप की सिर पर शीतल छाँव, घर लगता मंदिर विजय, गोकुल अपना गाँव |“ श्री विजय बागरी की इन पंक्तियों से आज साहित्य के तार झंकृत हो गए | अवसर था देश के सुविख्यात गीतकार, दोहाकार, श्री विजय बागरी का दिनाँक 14 दिसंबर को कटनी-से, सिवनी आगमन | नगर में पधारे साहित्यकारों के संमान करने की परंपरा का निर्वहन करते हुए, अखिल भारतीय साहित्य परिषद सिवनी इकाई ने, संजय वार्ड स्थित दादू निवास में श्री बागरी के सम्मान समारोह का आयोजन किया | कार्यक्रम, श्री विजय बागरी के मुख्य अतिथ्य एवं श्री रमेश श्रीवास्तव 'चातक' की अध्यक्षता में, अत्यंत गरिमामय रूप-से संपन्न हुआ | नगर के हिंदी-उर्दू के प्रतिष्ठित साहित्यकारों नें शौल, श्रीफल के साथ एवं वोल्गा वैलफ़ेयर ओर्गानिज़शन द्वारा संविधान की प्रस्तावना (उद्देशिका) -से आगंतुक साहित्यकार श्री बागरी का संमान किया | इस शुभा-अवसर पर उपस्थित साहित्य सेवियों नें अपनी-अपनी रचनाओं का पाठ कर आयोजन को अविस्मर्णीय बना दिया |
कार्यक्रम का शुभारंभ दीप प्रज्जवलित कर, माँ सरस्वती की आराधना के साथ हुआ | काव्य पाठ श्रंखला की शुरुवात सात वर्षीय नन्हीं कवयित्री, नौमी श्रीवस्तव ने अपनी कविता “कितने प्यारे होते हैं पापा, हमारे बस हमारे होते हैं पापा | जीवन के गहरे समुंदर में कभी कश्ती, कभी किनारे होते हैं पापा | “ पढ़ कर करी, जिसमें उन्हें सभी साहित्यकारों का ढेर सारा आशीर्वाद प्राप्त हुआ | उर्दू के वरिष्ठ शायर सूफ़ी रियाज़ मो. 'निदा' कुछ यूँ कहते हैं, “ बहुत ऊँची उड़ान है उसकी, फ़िक्र भी आसमान है उसकी, खैरियत उसकी पूछते क्यों हो, चश्में नम तरजुमान है उसकी |” ओज के युवा कवि अक्षय दुबे'भारतीय' के भाव कुछ ऐसे थे, “ये वो भारत जिसमें चलती थी बलिदान की परंपरा, ये वो भारत जीसमें चलाती थी स्वाभिमान की परंपरा, भारत की माताओं नें कोखों के अंकुर दान किए, ये वो भारत जिसमें चलाती थी पुत्र दान की परंपरा |” अधिवक्ता, कवि अखिलेश यादव की पंक्तियाँ भावों को ऐसे झक झोरती हैं, “अब ही आगे आना होगा, कहना सुनना बहुत हो चुका, अब ही आगे आना होगा, माँग रहा है न्याय तुमसे, देश समाज और भावी भारत, अब तो आगे आना होगा |”
गोष्ठी प्रवाह को आगे बढ़ाते अरुण चौरसिया 'प्रवाह' ने कहा, “एक ही नदी है, एक ही नाव है, संग रहना इसी में, धरा में बहाव है | इसी में अज़ान, शब्द और रामधुन, झंडे लगे अलग रंग, ह्रदय में सभी के प्रेम का भाव है |“ वरिष्ठ साहित्यकार रामभवन सिंह ठाकुर कहते हैं, “ शीत शेरों से शिशर के दिवस रहे सियराय | निशा नशीली शरद की रही विरह भड़काए | जाड़ा खड़ा सबाब में मारे शीतल बाण | बिना दुशाला प्याला के निकले जाएँ प्राण |” गीतकार अरविंद अग्रवाल 'मानव' सुंदर गीत गाते हैं, “गीत भाव कल्पना है, गीत शब्द साधना है | आठों याम हम करें गीत की आराधना |” शायरा अनीसा कौसर भी कुछ यूँ कहती दिखीं, “लहज़ा अगर है सख्त़ तो कोई ख़ता नहीं, इंसान साफ़ गो हैं मुनाफ़िक ज़रा नहीं |” शायर सिराज़ कुरेशी का अंदाज़-ए-बयाँ देखें, “अपना जहान अपनी ज़मीन होना चाहिए, जन्नत सी सरज़मीन यहीं होना चाहिए, इस घर में चार भाई मोहब्बत से रह सकें, इतनी कुशादा दिल की ज़मी होना चइए |” हिंदी के प्राध्यापक, कवि सत्येंद्र शिंडे बेटियों पर अपनी भाव-पट खोलते हुए कहते हैं, दुनिया का सबसे बड़ा सुख होता है बेटियों का पिता बनाना, पिता बनना सीखा है मैंने अपने पिता-से |”
हरदिल अज़ीज़ शायर मिनहाज कुरेशी फ़रमाते हैं, “उसमें ऐसा जूनून मिलाता है, खून से जैसे खून मिलाता है, उससे रिश्ता है क्या नहीं मालूम, उससे मिलकर सुकून मिलाता है |” सुप्रसिद्ध कवयित्री प्रतिमा अखिलेश नें नई पद्य विधा सजल-से पटल को परिचित कराते हुए पढ़ा, “क्यूँ जलते अंगार हमारी सीमा पर, कब बरसेगा प्यार हमारी सीमा पर | युद्ध हुआ तो राख उड़ेगी साँसों की, उजड़ेंगे परिवार हमारी सीमा पर |” गीतकार, कथेतर सहित्यकार, अखिलेश सिंह श्रीवास्तव 'दादू भाई' ने मुक्तकों के माध्यम से बात कही, “मुझको दौलत की ऐसी तू चाबी न दे, ऐ ख़ुदा कुछ व्यसन कुछ ख़राबी न दे, जिसको पाने से रिश्ते बिखरने लगें, मुझको ऐसी कभी क़ामयाबी न दे|” उपस्थित सम्मानित नागरिक बंधुओं में से डॉ. दादू निवेंद्र नाथ सिंह नें एक मशहूर शेर पढ़ा “ यूँ तो हर दिल किसी दिल पे फ़िदा होता है, प्यार करने मगर तौर जुदा होता है, आदमी लाख संभलने पे भी गिरता है मगर, झुक के उठा ले वो ख़ुदा होता है |” कर्यक्रम का सफल संचालन अखिलेश सिंह श्रीवास्तव ने किया, वहीं आभार प्रदर्शन अखिल भारतीय साहित्य परिषद सिवनी के अध्यक्ष, श्री चातक ने किया | इस दौरना जबलपुर-से प्रकाशित पुस्तक, सहित्य संस्कार का वितरण भी किया गया |
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